* अर्पणा की कला अक्सर कुछ कहते सुनाई देती है।
* रंगों के प्रयोग का अनूठा ग्रामर मिलता है इनकी कला में
* मानवीय मूल्यों और संबंधों को याद दिलाते हैं इनके चित्र ।समकालीन कला जगत में उनके चित्र इस दुनिया को खूबसूरत वनाने की वकालत करते हैं। चौतरफा निगाह डालने पर आज हमारे समाज का जो दृश्य उभरता है, अर्पणा कौर के चित्र उसी के बीच से अपना रास्ता बनाते हैं।
उन्हें कबीर अच्छे लगते हैं, सूफी गीत अच्छे लगते हैं, सोहनी-महीवाल की प्रेम कथा उन्हें अच्छी लगती है, अरावली के पहाड़ों की श्रृंखला अच्छी लगती है। पर इन सब चीजों से बढ़कर खुद चित्रकार होते हुए भी उन्हें दूसरों की कृतियां भी अच्छी लगती हैं, यह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर के चरित्र का हिस्सा है जो बताती है कि आज भी उनके मन में दूसरों के संघर्ष और दूसरों की कला के प्रति सम्मान है। वैसे संघर्ष शब्द अर्पणा कौर के लिए नया नहीं है। बचपन के उन दिनों में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित, हो रही थी, उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरूष प्रधान मानसिकता वाले एक समाज में एक अकेली औरत को खुद के लिए भी लड़ते देखा था।

'वह औरत मेरी मां थी और मैं आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं।' कहते हुए चर्चित चित्रकार अर्पणा कौर मानो बचपन में पहूंच गई हो- मेरा बचपन कुछ अलग था अपने असफल हो चुके दांपत्य जीवन से संघर्ष करती मेरी मां ने मुझे असीमित प्यार दिया और उस माहौल ने मेरे मन में कुछ रचने की, सोचने-समझने की अकूत ताकत दी। यह भी नहीं याद कि कब मैं रंगों से खेलने लगी, कब ब्रश के खेल अभिव्यक्ति में शरीक होने लगे। मेरी बेहतर लिखाई-पढ़ाई के लिए मां को काफी मेहनत करनी होती थी। वह स्कूल में पढ़ाती थी, लेकिन पंजाबी साहित्य की दुनिया में एक लेखिका के रूप में वह तेजी से लोकप्रिय हो रही थी, (पंजाबी साहित्य की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर उनकी मां हैं।) तमाम व्यस्तताओं और संघर्षों के बावजूद वह मेरे काम में दिलचस्पी लेतीं। घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी, पर उन्होंने इस बात को कभी महसूस होने नहीं दिया। वे अच्छे रंग और महंगे कैनवास मुझे उपलब्ध करवातीं थीं।
आज जब कला की दुनिया में कुछ अजूबा और ऊल-जलूल हरकतों से ख्यात होने की प्रवृति चरम पर है, अर्पणा कौर की आस्था आज भी आकृतिमूलक विषयप्रधान चित्रों में है। यह सच है कि अनुभव को स्मृति और स्मृति को संवेदना में बदलने के बाद ही कला का जन्म संभव है, पर यह पूरी प्रक्रिया एक खास अंदाज में अर्पणा कौर के यहां फिल्टर होती है, क्योंकि उनकी कला कहीं से शुष्क और नीरस नजर नहीं आती।
अर्पणा कौर बताती हैं- पहले मेरे चित्र मेरी निजी डायरी के पन्नों की तरह हुआ करते थे, पर एक कैनवास से दूसरे कैनवास तक की यात्रा के बाद में अपने आपको आज भी अधिक परिपक्व और समझदार पाती हूं।
अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवास पर एक स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए स्त्री आज भी एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं। उनके कैनवास पर पहाड़ हैं, फूलों की घाटियां हैं, झूमती प्रकृति हैं और कोई नाचता पुरुष है तो वह महज इसलिए नहीं कि ये सारी चीजें आंखों को लुभाते हैं। उन्होंने प्रकृति को एक मनुष्य की आंखों से देखा है और उसमें समाज के चेहरे को पहचानने की कोशिश की है। 1980-81 के आसपास शेल्टर्ड वुमेन, स्टारलेट रूम, बाजार आदि चित्र श्रृंखलाओं में एक आम भारतीय नारी के कई पक्षों की कलात्मक परिभाषा तय की, वहीं वर्ष 1983 की उनकी चित्र श्रृंखला में लोगों ने स्त्री-पुरूष संबंधों की एक नई व्याख्या को महसूस किया। 1984 के सिख विरोधी दंगे ने अर्पणा को मानो झकझोर कर रख दिया। वल्ड गोज और आफ्टर द मैसकर चित्र श्रृंखला जिसने देखा होगा, वह जानते हैं कि उनकी कला में आम आदमी के लिए दुख-दर्द, किस तरह जगह पाते हैं। खुद कहती भी हैं- "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"
उन्हें दुख है कि उनके चित्र महानगर तक ही सीमित हो गए हैं- लेकिन क्या किया जा सकता है, एक चित्रकार की भी सीमा होती है। आर्थिक रूप से यह संभव नहीं है कि इन्हें बिना किसी वित्तीय सहायता के छोटे शहरों की दीर्घाओं में ले जा पाएं। सुरक्षा की दृष्टि से भी ऐसा संभव नहीं, क्योंकि बड़े-बड़े कैनवासों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना कठिन कार्य है।
कई लोगों को अर्पणा कौर की कला कठिन लग सकती है। पर कहना गलत नहीं होगा कि आकृतियां अर्पणा कौर के कैनवास पर अपना एक सांचा खुद तय करती हैं और वह ठोस सांचे में ढली आज की उन अनेक पेंटिंग से अलग है, जो प्रायः किसी रचनात्मक या आत्मसंघर्ष से रहित मालूम पड़ती है। रंगों के प्रयोग का अनूठा ग्रामर मिलता है अर्पणा की कला में। चौतरफा निगाह डालने पर आज हमारे समाज का जो चित्र उभरता है, उनके चित्र उसी के बीच से अपना रास्ता बनाते हैं। पर वे सिर्फ आज या वर्तमान की बात नहीं करते। यह बताते हुए कि हमसे कहां क्या चूक हो गई है, उनके चित्र मानवीय मूल्यों और संबंधों में कहां क्या छूट रहा है, इसकी भी याद दिलाते हैं।
बचपन से शुरु हुई उनकी कला यात्रा में कई पड़ाव आए और कई उतार-चढ़ाव भी। देश की सभी महत्वपूर्ण गैलरियों के अलावा विदेश के प्रायः सभी चर्चित शहरों में उनकी प्रदर्शनी लग चुकी है। लाखों में पेंटिंग बिकती है। नाम और दाम के अलावा कला बाजार को अपनी शर्तों पर आंदोलित करनेवाली अर्पणा को आज भी वह दिन याद है, जब मकबूल फिदा हुसैन द्वारा नए कलाकारों के लिए आयोजित एक ग्रुप शो में उन्होंने हिस्सा लिया था- 'जब मैंने छह चित्र अपने भेजे थे, यों ही। यकीन नहीं हुआ था, जब हुसैन साहब ने प्रदर्शनी के लिए उन चित्रों को स्वीकार कर लिया। कला दीर्घा की भव्यता आतंकित कर रही थी। मुझे। लेकिन वहां मेरे चित्र सराहे गए, चार बिक भी गए थे।'.......और इस तरह अचानक कला की दुनिया में मेरा प्रवेश हो गया।
कला की दुनिया में प्रवेश अचानक जरूर हुआ, लेकिन अर्पणा कौर अचानक बड़ी कलाकार नहीं हो गई। एक लंबा संघर्ष है अनेक हिस्से में। अपने कैनवास पर उन्होंने स्त्री की जिजीविषा को जिस ढंग से चित्रित किया है, उससे ज्यादा गहरे रंगों में उन्होंने एक अकेली औरत की जिजीविषा को भोगा है, और यही कारण है कि उनकी कला अक्सर कुछ कहते सुनाई देती है।
-प्रीतिमा वत्स , हिन्दुस्तान,रवि उत्सव, कवर स्टोरी, 2 फरवरी 2003