जब सुबह के छह बजे दिल्ली नींद के आगोश से निकल कर तैयार हो रही होती है, तब एक कलाकर खेलगांव में सीरीफोर्ट आडिटोरियम के आसपास सड़कों के किनारे सालों से खड़े पेड़ों की गिनती कर रही होती हैं। उन पेड़ों पर निशान लगवाती हैं । उनके नंबर लिखती हैं और तरकीब ढूंढती हैं कि कैसे उन पेड़ों को बचाया जाए?
2010 के विराट खेल आयोजन के लिए दिल्ली के सजने और संवारने की होड़ में खतरा इस बात का है कि वे पेड़ काट न दिए जाएं। आयोजकों के पास अपनी मजबूरी का तर्क है और उन कलाकारों के पास पेड़ों पर रह रहे हजारों परिंदों, उनकी छाया में बैठने वाले और सुबह की सैर के लिए निकलने वाले सैकड़ों लोगों की मुसीबतों की दुहाई। रंगों और रेखाओं की दुनिया से अलग प्रशासनिक उलझनों, फाइलों और सरकारी बाबुओं से यह मगजमारी आखिर क्यों? अर्पणा कहती हैं, 'पेड़ बचेंगे तो ही कैनवास पर दिखेगी हरियाली और तभी मन को भी मिलेगा सुकून।'

एक कलाकार की पेड़ बचाने की यह जिद कब पूरी होती है, यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन अर्पणा कौर की इस जोखिम भरी लड़ाई बहुतों को अचंभे की तरह लगती है। पेज थ्री की पार्टियों में या फिर गैलरियों की ओपनिंग प्रदर्शनियों में अमरत्व की खोज करने वाले कलाकारों को देख-देखकर ठहर चुकी आंखों को अर्पणा कौर की यह जिद एक सनक भी लग सकती है।
सनक ही है, जिसने महत्वाकांक्षियों की भीड़ में अर्पणा कौर को एक नई पहचान दिलाई है। जब उनके समय के सारे कलाकार पश्चिम की दुनिया में अपनी कला के लिए जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, वह पंजाब के चिनाब नदी से सटे एक गांव में सोहनी और महीवाल की महान प्रेमकथा को बार-बार सुन रही थी। सदियों पुरानी मोहब्बत की इस कहानी ने जब उनकी कूची से आकार पाया तो गैलरी में मौजूद लोगों को सहसा ही लगा कि एक बार फिर सोहनी दे रही है आवाज। आज भी उनकी कला में माटी की गंध मिलती है तो इसकी बड़ी वजह यही है कि जब भी उन्हें कलात्मक शक्ति की जरूरत होती है, उनकी निगाहें गुरुनानक, बुल्ले शाह, बाबा फरीद और कबीर को ढूंढने लगती हैं। और कहना गलत नहीं होगा कि समकालीन भारतीय कला में सूफीवाद को जो जगह मिली है, उसके पीछे अर्पणा कौर की सनक भी है।
लेकिन क्या हमेशा बीते हुए कल से अपनी कूची के लिए ताकत बटोरने में यह खतरा नहीं है कि कलाकार अपने वक्त से कट जाए। अर्पणा कौर कहती हैं, आपकी कला खुद इस खतरे से निबटती है। विषय कुछ भी हो, कोई भी कलाकार जब रचता है तो वह अपने समय में रचता है। अपने वातावरण में रचता है और अपने वक्त के लिए रचता है। अगर मैंने सोहनी महिवाल बनाया तो ये मुमकिन ही नहीं कि सोहनी के समय के लोग उसे देखें। आनेवाले कल के लोग उसे कितना देख पाएंगे, यह भी मुझे नहीं पता, लेकिन उसे मेरे जमाने के लोगों ने देखा और यहीं आकर कला बीते वक्त से निकलकर अपने जमाने में खड़ी हो जाती है। बीते जमाने के सच को अपनी सोच में ढालना आसान काम नहीं, लेकिन अर्पणा कौर ने जिस अंदाज में सदियों पुरानी कई कला परंपरा को अपनी कला में जगह दी है, उससे उनका हर कैनवास एक ताजगी का अहसास देता है। लोक और आदिवासी कला को देखकर हमेशा मुझे कुछ नया करने का जुनून मिला है। वार्ली चित्रकला हो या गोंड कला हो,चंबा कला हो या कोई भी लोक कला, आप गौर से देखेंगे तो आपको लगेगा कि हर कला आपसे कुछ कह रही है। अर्पणा कौर को यह मलाल है कि पश्चिम के मोह में अक्सर अपने पारंपरिक कलाओं की आवाज को अनसुना कर देते हैं।
कला की आवाज को सुनने के लिए एक बेहद संवेदनशील दिल चाहिए, लेकिन भागती दुनिया के शोर में जब लोगों को अपनों की आवाज खटकती हो तो ऐसे में कितनों को यह फुरसत होगी कि कला की मासूम पुकार पर जवाब दे सके। शायद यही वजह है कि अपनी मां और प्रख्यात साहित्यकार अजीत कौर के सहयोग से अर्पणा कौर ने लोक और आदिवासी कला के साथ-साथ इंडियन मिनियेचर पेंटिंग्स का एक बहुमूल्य संग्रहालय बनाया है। देश के कोने-कोने में पनपी कला परंपराओं का एक ऐसा संगम, जिसपर चाहे ते दिल्ली फक्र कर सकती है। और आप चाहें तो इसे भी देश की एक प्रख्यात चित्रकार की सनक कह सकते हैं।
मगर अर्पणा कौर की यह जिद, यह सनक और यह कलात्मक जिजीविषा कई सवाल भी पूछती है। बिना उत्तर की प्रतीक्षा के। सवाल हमसे है। आपसे है। तमाम उन लोगों से है, जो यह मानते हैं कि हमारे आसपास की दुनिया को एक कला के कैनवास की तरह खूबसूरत होना चाहिए। उन सवालों में सबसे जरूरी सवाल यह है कि आखिर जिस वक्त में हम जी रहे हैं, उसकी सुंदरता की हिफाजत का जिम्मा क्या सिर्फ एक अकेली महिला चित्रकार का है। अर्पणा कौर तो अपनी कला में बार-बार कैंची का बिंब लाकर सालों से यह कहती आई हैं कि हरियाली, फूल, पत्ते, बच्चों की मासूमियत और बूढ़ों का अनुभव संसार सब जरूरी है। जिस दिन ये नहीं रहेंगे, उस दिन हम नहीं रहेंगे, लेकिन कौन करे पहल और सवाल सिर्फ खेलगांव इलाके में पेड़ों के कटने का नहीं है। यह तस्वीर गांवों से लेकर हर शहर और हर महानगर की है। अगर हम आसपास की दुनिया को यूं ही नजरअंदाज करते रहे तो फिर क्या आने वाली पीढ़ी को बता पाएंगे कि किसके कूकने से लौटता है बसंत और किसके बोलने से आते है पाहुन?
-देव प्रकाश, 24 अगस्त 2009, दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,दिल्ली
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