Sunday, June 27, 2010

A Big crowd-Puller

The Times of India. 2009.
Posted by-Pritima Vats

I cried at Amrita's doorstep....

The Times of India, 7 March 2010.
By-
posted by -Pritima Vats

Friday, June 25, 2010

Book of Songs

The Sunday Express, 8 March 2009.
By- नवतेज शर्मा
Posted by - Pritima Vats
                                                                   

The Eloquent Tree

The Times of  India, 2010
By-Deepshikha Kalsi
Posted by- Pritima Vats

Tuesday, June 22, 2010

कोशिश पर्यावरण बचाने की

जागरण सखी, सितंबर-2009

The women who ruled'08

Hindustan Times, 8 March 2009
Posted by- Pritima vats

Sunday, June 6, 2010

Of name and form

posted by-pritima vats

Thursday, June 3, 2010

The Good Earth

dna. sunday.Mumbai, 31 july 2005
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Monday, May 31, 2010

Murals - Big Scale


India Today, 10 January 2005
Posted by - Pritima vats



Friday, May 28, 2010

Tsunami dampens Holi in tinsel town

 Times of India, 2005.
By- Times news network
posted by- Pritima Vats

रोम-रोम में है मां

हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, 4 मई 2005.
लेखक - दीपिका भटनागर
प्रस्तुति- प्रीतिमा वत्स

Tuesday, May 25, 2010

जीवन का आलाप

सहारा समय, शब्द लोक, 9 जुलाई 2005 लेखक- ओम निश्चल
प्रस्तुति- प्रीतिमा वत्स

Saturday, May 22, 2010

The Subtleties of art....

The Times of India, Delhi Times,
Sunday, 12 November 2006.
posted by - Pritima vats

ART FLIGHT

HT City, New Delhi 12 May 2006.
By- Archana
posted by- Pritima vats

Friday, May 21, 2010

Metaphors for time

1 December 2005. By -Athreya
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Scissors as a symbol connects in Caur's art

22 November 2005. By Kavitha Srinivasa.
posted by - Pritima vats

Thursday, May 20, 2010

'काम' या 'नाम'?

दैनिक जागरण, नई दिल्ली,13 दिसंबर 2005.
लेखक- वी गुप्ता
प्रस्तुति- प्रीतिमा वत्स

Passion with time

1 December  2005, By- Nalini S Malaviya.
Posted by - Pritima vats

Saturday, May 15, 2010

Engendering a new art form

 Sunday Hindustan Times, New Delhi.
Dec - 4, 2005.
posted by pritima vats

Friday, May 14, 2010

Extra Efforts


Art Explorer, Jan-Feb 2005, By- Dr. Sanjiv Nair.
Posted by-Pritima Vats

Thursday, May 13, 2010

'बार बार नहीं कुरेदा जा सकता जख्म'

हिन्दुस्तान,नयी दिल्ली,10 अगस्त 2005.
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

Wednesday, April 21, 2010

GURU NANAK

This  work is dediscated to Miit-Gurudev Sant Shri Sahibji, who taught me how to try to walk in the footsteps of the Great Guru of His and of all times, Nanak, and to my mother, who while raising me poured Nanak's elevating versews into my ears, and told me to choose any Path, any Name, any Religion, and to always try and transcend external rituals, as He did, seeking the Essence alone....................................................................................................(Arpana Caur)

Judgement,Oil on canvas,2002,55"X30"

GURU NANAK

Endless Journeys,Oil on canvas,2002,60"X70"


Nanak,Bala,Mardana,Oil on canvas,2002,70"X70"
Collection: Param&Tripat Kalra
Endless Journeys, Oil on canvas,2002,69"X44"
Collection: Dr.Narinder S.Kapany
In Bleeding Times, Oil on canvas,2001,56"X64"
Punja Sahib, Oil on canvas, 2000,70"X50"
Sacred Thread, Oil on canvas, 2000,56"X66"
Collection: Erica and Peter Muller and Uma jain
Within &Without, Oil on canvas,2002,60"X70",
Collection:Ernst W. Koelnsperger
Fish and Ocean, Oil on canvas,2003, 72"X50"

POSTED BY-PRITIMA VATS

Thursday, March 25, 2010

Myth and Reality












ART India
(THE ART NEWS MAGAZINE OF INDIA)
QUARTER -3, 2002
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

Saturday, March 13, 2010

THE LEGEND OF SOHNI

अर्पणा कौर देश और दुनिया की उन कलाकारों में से एक हैं, जिनका मन हमेशा लोक और सूफी संसार में रचता बसता है। सोहनी महिवाल की सदियों पुरानी कहानी हमने भी सुनी हैं,आपने भी सुनी होंगी, शायद आपने फिल्मों में भी अमर प्रेम के इन दो पात्रों को देखा होगा....लेकिन सोहनी को अर्पणा जी ने अपने कैनवास पर जो कलात्मक ऊंचाई दी है...वो न तो फिल्मों में दिखी और न ही कथाओं में पढी गई...।
THE LEGEND OF SOHNI का रचना काल है साल 2000 से लेकर साल 2001 के बीच। इन चित्रों की प्रदर्शनी 2001 में दिल्ली के Academy of Fine Arts & Literature में और 2002 में मुंबई के Cymroza Gallery में आयोजित हुई थी।
                                                                                                                                                 -प्रीतिमा वत्स

                                  
 

"This new work is dedicated to my mother Ajeet Cour who filled my young ears with the rich verses of sages and poets of this varied and ancient land''
-Arpana Caur





                                                                                                                                                                                                                      

Wednesday, February 17, 2010

कला में कलाबाजी का खेल


-शेफाली वासुदेव. साथ में लबोनिता घोष,निर्मला रवींद्रन और सुप्रिया द्रविड़



                                                                                              प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

Friday, February 12, 2010

"महिला कलाकारों का संघर्ष तलवार की धार पर चलना है''


 प्रसिद्ध चित्रकार अर्पणा कौर की बी भास्कर से यह बातचीत
समकालीन कला (मार्च-जून,2008) में प्रकाशित है। पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें।
                                                                                  -प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

दाम भी मिलेगा और नाम भी

भारतीय कला का भविष्य निस्संदेह बहुत उज्जवल है। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से विश्व का भूगोल तेजी से सिमट रहा है और भारतीय कलाकार की पहुंच भी बढ़ रही है। पहले अन्य देशों विशेषकर जर्मनी,अमेरिका और ब्रिटेन की गैलरियों में भारतीय कलाकारों की बहुत कम पेंटिंग देखने को मिलती था इधर मैं जर्मनी गई थी तो देखा कि भारतीय कला की मांग बढ़ी है।सौ साल बाद स्थिति बेहद सुखद रहने वाली है। मुझे पूरा यकीन है कि विदेश की प्रसिद्ध कला दीर्घाओं में भारतीय पेंटिंग की धूम रहेगी। जहां तक लोगों की कला में दिलचस्पी का सवाल है, तो निस्संदेह यह और बढ़ेगी। आज से दस साल पहले तक कला को केवल बौद्धिक जगत के लोगों से ही संबद्ध करके देखा जाता था। अब कला जन-जन तक पहुंच रही है। कला विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की सेख्या में जिस तेजी से इजाफा हो रहा है, उससे एक उम्मीद जरुर बंधती है। गौर करने वाली बात यह है कि पहले कला को अपना कैरियर बनाने की बात एक कलाकार का बेटा ही सोचता था, लेकिन अब ऐसे बच्चे भी कला में भविष्य बना रहे हैं, जिनका पीढ़ियों से कला के क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं है। कला के क्षेत्र में संभावनाएं भी बढ़ी हैं, जिसके कारण युवाओं का रुझान इस क्षेत्र की तरफ बढ़ा है। कुल मिलाकर आज की स्थितियां भविष्य की बेहतर संभावनाओं के प्रति आशा जगाती हैं।
-भास्कर फीचर नेटवर्क
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

Thursday, February 11, 2010

दुनिया को सुंदर बनाने का सपना

मानवीय मूल्यों और संबंधों की याद दिलाते उनके चित्र इस दुनिया को सुंदर बनाने की वकालत करते हैं। यही कारण है कि अर्पणा कौर के चित्र जिजीविषा के छंद लगते हैं।
उनके कैनवास पर पहाड़ हैं, फूलों की घाटियां हैं, झूमती प्रकृति है और कोई नाचता पुरुष है तो वह महज इसलिए नहीं कि ये सारी चीजें आंखों को लुभाती हैं। उन्होंने प्रकृति को एक मनुष्य की आंखों से देखा है और उसमें समाज के चेहरे पहचानने की कोशिश की है। इसीलिए अर्पणा की कला अक्सर कुछ कहती हुई जान पड़ती है और रंगों के प्रयोग का अनूठा व्याकरण मिलता है उनकी कला में। वे बताती हैं : "पहले मेरे चित्र मेरी निजी डायरी के पन्नों की तरह हुआ करते थे, पर एक कैनवास से दूसरे कैनवास तक की यात्रा के बाद मैं अपने आपको आज अधिक परिपक्व और समझदार पाती हूं।" इन सब चीजों से बढ़कर खुद चित्रकार होते हुए भी उन्हें दूसरों की कृतियां अच्छी लगती हैं। यह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर के चरित्र का वह हिस्सा है, जो बताता है कि आज भी उनके मन में दूसरों की कला और दूसरों के संघर्ष के प्रति सम्मान है। वैसे संघर्ष शब्द अर्पणा कौर के लिए नया नहीं है। बचपन में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित हो रही थी। उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरुष-प्रधान मानसिकता वाले समाज में एक अकेली औरत को खुद के लिए लड़ते देखा था। वह औरत मेरी मां थी और मैं आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं, कहते हुए अर्पणा कौर मानो अपने बचपन में पहुंच गई हों। मेरा बचपन कुछ अलग था। अपने असफल हो चुके दांपत्य जीवन से संघर्ष करती मेरी मां ने मुझे असीमित प्यार दिया और उस माहौल ने मेरे मन में कुछ रचने की, सोचने-समझने की अकूत ताकत दी। यह भी नहीं याद कि मैं कब रंगों से खेलने लगी और कब ब्रश के खेल मेरी अभिव्यक्ति में शरीक होने लगे। मेरी बेहतर लिखाई-पढ़ाई के लिए मां को काफी मेहनत करनी होती थी। वह स्कूल में पढ़ाती थीं, लेकिन पंजाबी साहित्य की दुनिया में एक लेखिका के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो रही थीं। शायद बहुत कम लोगों को मालूम है कि पंजाबी साहित्य की सुपरिचित लेखिका अजीत कौर चित्रकार अर्पणा कौर की मां हैं।
आज जब कला की दुनिया में कुछ अजूबा करके और ऊल-जलूल हरकतों से प्रचार पाने की प्रवृति चरम पर है। अर्पणा कौर की आस्था को स्मृति और स्मृति को संवेदना में बदलने की पूरी प्रक्रिया एक खास अंदाज में अर्पणा कौर के यहां फिल्टर होती है।
1980-81 के आसपास स्टारलेट रूम, बाजार आदि चित्र-श्रृंखलाओं में उन्होंने जहां एक आम भारतीय नारी के कई पक्षों की कलात्मक परिभाषा तय की, वहीं वर्ष 1983 की उनकी चित्र श्रृंखला में कलाप्रेमियों ने स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई व्याख्या को महसूस किया। 1984 के सिख विरोधी दंगे ने अर्पणा कौर को माने झकझोर कर रख दिया। उस पीड़ा पर बने उनके चित्रों को जिन्होंने देखा होगा, वे जानते हैं कि उनकी कला में आम आदमी के दुख-दर्द किस तरह जगह पाते हैं। वे खुद कहती भी हैं : "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"
अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवास पर एक स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए औरत आज भी एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। चर्चा में बने रहना शायद उन्हें पसंद नहीं। पिछले दिनों जब उनकी नकल की हुई कलाकृतियां दिल्ली में बरामद हुईं तो भीतर से अहत अर्पणा ने इतना भर कहा : "कला की दुनिया में नैतिकता न बची रहे तो फिर कला की परिभाषा बदलनी होगी।"
-एकलव्य, लोकायत, दिसंबर-2003
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

Thursday, February 4, 2010

सलीब पर टंगी कला

चोरी और गुमशुदगी की हाल ही की घटनाएं भारत में कलाकृतियों का बीमा कराने की मुश्किलों की ओर संकेत करती हैं।
महीनों तक खामोश रहनेवाले समुदाय के लिए यह चिंतापूर्ण पखवाड़ा था। सीबीआइ ने रवि वर्मा की बाउरिंग्स नाम के नीलाम घर में बिकने जा रही कृतियां बरामद कीं, अंजलि इला मेनन का 3.5 लाख रु, का मुरानो मूर्तिशिल्प एक प्रदर्शनी से गायब हो गया, फिर अर्पणा कौर की नकली कलाकृतियां दिल्ली के लागपतनगर से बरामद हुईं।
कला जगत अक्सर संग्रहालयों में उपेक्षा, प्रोत्साहन और संरक्षण का अभाव सरीखे मुद्दे उठाता रहा है। पर फौरी चिंता कलाकृतियों को लेकर अपराध में आई तेजी है। इला मेनन की कृति की चोरी से कुछ महीने पहले हैदराबाद में एम.एफ.हुसैन की कृति गायब हुई थी। कला जगत को शक है कि और भी नकली कलाकृतियां बाजार में हैं।दिल्ली में गैलरी एस्पेस की मालकिन रेणु मोदी का अनुमान है कि यह समस्या बढ़ेगी, पर प्रमोटर संजीव भार्गव के अनुसार यह कला जगत में हुए खासे विकास का नतीजा है। उनके मुताबिक, "समस्या यह है कि तैयब मेहता और हुसैन की कलाकृतियों का बेहद ऊंची दरों पर बिकना भले ही भारतीय कला के बढ़ते मूल्यों का सबूत है, पर इस क्षेत्र में व्यापार अभी संगठित नहीं है।" क्यूरेटर इना पुरी कहती हैं कि कलाकारों को मिलकर काम करने की जरूरत है। "कोई जेमिनी रॉय जैसे लोगों का भोलापन तो समझ सकता है, पर आज के कलाकारों को यह पता होना चाहिए कि बाजार में उनकी कितनी कीमत है और उन्हें ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए।" उन्होंने दिल्ली के होटल आइटीसी मौर्य में प्रदर्शित सभी कलाकृतियों का बीमा कराया है। वे पूछती हैं, "पिकासो की प्रदर्शनी लगती है तो राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय की सुरक्षा कौन करेगा? हमें समस्या बढ़ने से पूर्व ही खत्म करनी होगी।" दूसरे के मुताबिक, यह सब इतना आसान नहीं। बीमे के लिए प्रमाणीकरण और मूल्यांकन जरूरी है। बकौल मेनन, "बीमा प्रक्रिया इतनी अटपटी है कि इसमें कला कर्म से ज्यादा कैनवस की कीमत शामिल की जाती है।" मोदी बताती हैं कि कैसे नेशनल इंश्योरेंस कंपनी ने उनको कुछ मूर्तिशिल्प का नुकसान होने पर 100 रू का मुआवजा देने की पेशकश की। उनका मानना है कि मौजूदा बीमा महज धोखा है, सतही तौर पर आपकी कलाकृति का बीमा तो होता है। पर बात आगे बढ़ने पर बीमा एजेंसी पूछेगी, "इसका मूल्यांकन किसने किया?" कला संग्राहक नितिन मयाना इसके लिए बीमा कंपनियों में जागरूकता की कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं, "दुनिया भर में बीमा कंपनियां कला का इस्तेमाल संभ्रांत व्यक्तियों तक पहुंचने के लिए करती हैं। भारतीय कंपनियों ने अभी इस तरफ दिमाग नहीं लगाया है, हालांकि दस साल के प्रकाशित आंकड़े उपलब्ध हैं और मूल्यांकन आसानी से किया जा सकता है।" पश्चिम में एक्सा जैसे बीमा संगठनों ने कला के बीमे के लिए अलग से शाखा बना रखी है जिसमें मूल्यांकन आसानी से करने वाले भी हैं तो प्रमाणीकरण करने वाले भी।
चित्रकार मंजीत बावा का सुझाव है कि बीमा एजेंसियों की मूल्यांकन और प्रमाणीकरण सेवाएं शुरू होने तक कलाकारों व कलादीर्घाओं की समिति बनाई जाए, जिससे बीमा कंपनियां सलाह लें। दिल्ली की गैलरी ऑनर्स एसोसिएशन इससे सहमत है। भार्गव पूरे धंधे की तुलना पहले मुर्गी या अंडा वाली स्थिति से करते हैं। बीमे से इतर समस्या की जड़ यह है कि कला को मुनाफा कमाऊ पेशा नहीं माना जाता, न ही सरकार या कंपनी जगत इसे बढ़वा दे रहा है। कला के लिए वित्तीय योजनाओं को लेकर कुछ बैंकों से बात कर रहे भार्गव कहते हैं कि उन्हें इसका तगड़ विरोध झेलना पड़ा। वे कहते हां, प्रोत्साहन सरकार की ओर से आए। "वक्त आ गया है कि कला भी संगठित क्षेत्र बने, इसके लिए वित्त मंत्रालय राहत दे।"
मोदी कहती हैं, "ये समस्याएं परिपक्व होते बाजार का संकेत हैं और हमें सकारात्मक बनकर ये बाधाएं दूर करनी चाहिए". यही उम्मीद की किरण है।
-कणिका गहलोत, अप्रैल 2003, इंडिया टुडे
प्रस्तुति -प्रीतिमा वत्स