Friday, January 29, 2010

बात नैतिकता की हो

कभी आजादी इस देश के लिए बड़ा महास्वप्न था,पर जब हमें आजादी मिली तो, आजादी के जो अर्थ थे- समानता, मनुष्य की गरिमा और उसकी कई प्रकार की आजादियां जैसे- सम्मान के साथ जीना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि को नष्ट होते ही हमने देखा। हमलोग एक गुलामी से मुक्त होकर एक नई गुलामी की ओर बढ़ते चले गए। एक सांस्कृतिक आक्रमण हुआ, जिसके आगे हमने आत्मसमर्पण कर दिया। आज हमारे एक वर्ग की जो जीवन शैली है, एक ऐसा वर्ग जिसने तमाम गलत तरीकों से जो अथाह संपत्ति अर्जित की है और गरीब जनता की जो जीवन शैली है उसमें कितना अंतर है।आजादी के लिए काफी संघर्ष हुए। शहीदों ने कुर्बानियां दीं। पर सबको आजादी नहीं मिलने के कुछ अन्य कारण हैं। वैसे हमारे समाज की जो सबसे बड़ी खूबी है वह संस्कृति की विविधता है। सांस्कृतिक बहुलता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि लोकतंत्र जिंदा रहा। तमाम तरह के आक्रमण व कोशिशों के बावजूद अगर राजनीतिक रूप से हम आजाद हैं तो इसका एक बड़ा कारण देश की सांस्कृतिक बहुलता और उसकी एकता है।
एक कलाकार की हैसियत से मैंने महसूस किया है कि नैतिकता एक किस्म की विवशता हो गई है। आम लोगों में यह बात घर कर गई है कि एक नैतिक आदमी सफल नहीं हो सकता। और सफलता के शार्टकट रास्ते अनैतिकता की सुरंग से होकर गुजरते हैं। खासकर कला की दुनिया में अनैतिकता की छाया मुझे ग्रहण जैसे लगती है। एक कलाकार दूसरे की पेंटिंग नकल कर अपने नाम से बेच रहा है, प्रदर्शित कर रहा है, और यह सब किसी शेयर बाजार में नहीं,बल्कि कला की दुनिया में हो रहा है। कला की पहली शर्त है ईमानदारी और नैतिकता। आजादी की इस वर्षगांठ पर अगर हम नैतिक होने का प्रण लें, कोशिश करें तो शायद आजादी की मुकम्मल तस्वीर धीरे-धीरे स्वतः उभरने लगेगी।

प्रस्तुतिः प्रीतिमा वत्स

Wednesday, January 27, 2010

इनके चित्र जिजीविषा के छंद हैं!

* अर्पणा की कला अक्सर कुछ कहते सुनाई देती है।
* रंगों के प्रयोग का अनूठा ग्रामर मिलता है इनकी कला में
* मानवीय मूल्यों और संबंधों को याद दिलाते हैं इनके चित्र ।


समकालीन कला जगत में उनके चित्र इस दुनिया को खूबसूरत वनाने की वकालत करते हैं। चौतरफा निगाह डालने पर आज हमारे समाज का जो दृश्य उभरता है, अर्पणा कौर के चित्र उसी के बीच से अपना रास्ता बनाते हैं।
उन्हें कबीर अच्छे लगते हैं, सूफी गीत अच्छे लगते हैं, सोहनी-महीवाल की प्रेम कथा उन्हें अच्छी लगती है, अरावली के पहाड़ों की श्रृंखला अच्छी लगती है। पर इन सब चीजों से बढ़कर खुद चित्रकार होते हुए भी उन्हें दूसरों की कृतियां भी अच्छी लगती हैं, यह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर के चरित्र का हिस्सा है जो बताती है कि आज भी उनके मन में दूसरों के संघर्ष और दूसरों की कला के प्रति सम्मान है। वैसे संघर्ष शब्द अर्पणा कौर के लिए नया नहीं है। बचपन के उन दिनों में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित, हो रही थी, उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरूष प्रधान मानसिकता वाले एक समाज में एक अकेली औरत को खुद के लिए भी लड़ते देखा था। 'वह औरत मेरी मां थी और मैं आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं।' कहते हुए चर्चित चित्रकार अर्पणा कौर मानो बचपन में पहूंच गई हो- मेरा बचपन कुछ अलग था अपने असफल हो चुके दांपत्य जीवन से संघर्ष करती मेरी मां ने मुझे असीमित प्यार दिया और उस माहौल ने मेरे मन में कुछ रचने की, सोचने-समझने की अकूत ताकत दी। यह भी नहीं याद कि कब मैं रंगों से खेलने लगी, कब ब्रश के खेल अभिव्यक्ति में शरीक होने लगे। मेरी बेहतर लिखाई-पढ़ाई के लिए मां को काफी मेहनत करनी होती थी। वह स्कूल में पढ़ाती थी, लेकिन पंजाबी साहित्य की दुनिया में एक लेखिका के रूप में वह तेजी से लोकप्रिय हो रही थी, (पंजाबी साहित्य की प्रख्यात लेखिका अजीत कौर उनकी मां हैं।) तमाम व्यस्तताओं और संघर्षों के बावजूद वह मेरे काम में दिलचस्पी लेतीं। घर की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी, पर उन्होंने इस बात को कभी महसूस होने नहीं दिया। वे अच्छे रंग और महंगे कैनवास मुझे उपलब्ध करवातीं थीं।
आज जब कला की दुनिया में कुछ अजूबा और ऊल-जलूल हरकतों से ख्यात होने की प्रवृति चरम पर है, अर्पणा कौर की आस्था आज भी आकृतिमूलक विषयप्रधान चित्रों में है। यह सच है कि अनुभव को स्मृति और स्मृति को संवेदना में बदलने के बाद ही कला का जन्म संभव है, पर यह पूरी प्रक्रिया एक खास अंदाज में अर्पणा कौर के यहां फिल्टर होती है, क्योंकि उनकी कला कहीं से शुष्क और नीरस नजर नहीं आती।
अर्पणा कौर बताती हैं- पहले मेरे चित्र मेरी निजी डायरी के पन्नों की तरह हुआ करते थे, पर एक कैनवास से दूसरे कैनवास तक की यात्रा के बाद में अपने आपको आज भी अधिक परिपक्व और समझदार पाती हूं।
अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवास पर एक स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए स्त्री आज भी एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं। उनके कैनवास पर पहाड़ हैं, फूलों की घाटियां हैं, झूमती प्रकृति हैं और कोई नाचता पुरुष है तो वह महज इसलिए नहीं कि ये सारी चीजें आंखों को लुभाते हैं। उन्होंने प्रकृति को एक मनुष्य की आंखों से देखा है और उसमें समाज के चेहरे को पहचानने की कोशिश की है। 1980-81 के आसपास शेल्टर्ड वुमेन, स्टारलेट रूम, बाजार आदि चित्र श्रृंखलाओं में एक आम भारतीय नारी के कई पक्षों की कलात्मक परिभाषा तय की, वहीं वर्ष 1983 की उनकी चित्र श्रृंखला में लोगों ने स्त्री-पुरूष संबंधों की एक नई व्याख्या को महसूस किया। 1984 के सिख विरोधी दंगे ने अर्पणा को मानो झकझोर कर रख दिया। वल्ड गोज और आफ्टर द मैसकर चित्र श्रृंखला जिसने देखा होगा, वह जानते हैं कि उनकी कला में आम आदमी के लिए दुख-दर्द, किस तरह जगह पाते हैं। खुद कहती भी हैं- "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"
उन्हें दुख है कि उनके चित्र महानगर तक ही सीमित हो गए हैं- लेकिन क्या किया जा सकता है, एक चित्रकार की भी सीमा होती है। आर्थिक रूप से यह संभव नहीं है कि इन्हें बिना किसी वित्तीय सहायता के छोटे शहरों की दीर्घाओं में ले जा पाएं। सुरक्षा की दृष्टि से भी ऐसा संभव नहीं, क्योंकि बड़े-बड़े कैनवासों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना कठिन कार्य है।
कई लोगों को अर्पणा कौर की कला कठिन लग सकती है। पर कहना गलत नहीं होगा कि आकृतियां अर्पणा कौर के कैनवास पर अपना एक सांचा खुद तय करती हैं और वह ठोस सांचे में ढली आज की उन अनेक पेंटिंग से अलग है, जो प्रायः किसी रचनात्मक या आत्मसंघर्ष से रहित मालूम पड़ती है। रंगों के प्रयोग का अनूठा ग्रामर मिलता है अर्पणा की कला में। चौतरफा निगाह डालने पर आज हमारे समाज का जो चित्र उभरता है, उनके चित्र उसी के बीच से अपना रास्ता बनाते हैं। पर वे सिर्फ आज या वर्तमान की बात नहीं करते। यह बताते हुए कि हमसे कहां क्या चूक हो गई है, उनके चित्र मानवीय मूल्यों और संबंधों में कहां क्या छूट रहा है, इसकी भी याद दिलाते हैं।
बचपन से शुरु हुई उनकी कला यात्रा में कई पड़ाव आए और कई उतार-चढ़ाव भी। देश की सभी महत्वपूर्ण गैलरियों के अलावा विदेश के प्रायः सभी चर्चित शहरों में उनकी प्रदर्शनी लग चुकी है। लाखों में पेंटिंग बिकती है। नाम और दाम के अलावा कला बाजार को अपनी शर्तों पर आंदोलित करनेवाली अर्पणा को आज भी वह दिन याद है, जब मकबूल फिदा हुसैन द्वारा नए कलाकारों के लिए आयोजित एक ग्रुप शो में उन्होंने हिस्सा लिया था- 'जब मैंने छह चित्र अपने भेजे थे, यों ही। यकीन नहीं हुआ था, जब हुसैन साहब ने प्रदर्शनी के लिए उन चित्रों को स्वीकार कर लिया। कला दीर्घा की भव्यता आतंकित कर रही थी। मुझे। लेकिन वहां मेरे चित्र सराहे गए, चार बिक भी गए थे।'.......और इस तरह अचानक कला की दुनिया में मेरा प्रवेश हो गया।
कला की दुनिया में प्रवेश अचानक जरूर हुआ, लेकिन अर्पणा कौर अचानक बड़ी कलाकार नहीं हो गई। एक लंबा संघर्ष है अनेक हिस्से में। अपने कैनवास पर उन्होंने स्त्री की जिजीविषा को जिस ढंग से चित्रित किया है, उससे ज्यादा गहरे रंगों में उन्होंने एक अकेली औरत की जिजीविषा को भोगा है, और यही कारण है कि उनकी कला अक्सर कुछ कहते सुनाई देती है।

-प्रीतिमा वत्स , हिन्दुस्तान,रवि उत्सव, कवर स्टोरी, 2 फरवरी 2003

कुछ तुम करो, कुछ हम करें

शायद हम कभी इस पर सोचते नहीं कि जो समाज एक कलाकार को विशेष हैसियत देता है, वह कलाकार समाज को क्या देता है? सवाल पुराना है, लेकिन पेज थ्री पार्टियों में या फिर गैलरियों के आयोजन में अमरत्व की खोज करनेवाले चित्रकारों को देख-देखकर ठहर चुकी आंखों को शायद सुपरिचित चित्रकार अर्पणा कौर की जिद जवाब तो नहीं एक सुकून का अहसास जरूर दिला सकती है।

जब सुबह के छह बजे दिल्ली नींद के आगोश से निकल कर तैयार हो रही होती है, तब एक कलाकर खेलगांव में सीरीफोर्ट आडिटोरियम के आसपास सड़कों के किनारे सालों से खड़े पेड़ों की गिनती कर रही होती हैं। उन पेड़ों पर निशान लगवाती हैं । उनके नंबर लिखती हैं और तरकीब ढूंढती हैं कि कैसे उन पेड़ों को बचाया जाए?
2010 के विराट खेल आयोजन के लिए दिल्ली के सजने और संवारने की होड़ में खतरा इस बात का है कि वे पेड़ काट न दिए जाएं। आयोजकों के पास अपनी मजबूरी का तर्क है और उन कलाकारों के पास पेड़ों पर रह रहे हजारों परिंदों, उनकी छाया में बैठने वाले और सुबह की सैर के लिए निकलने वाले सैकड़ों लोगों की मुसीबतों की दुहाई। रंगों और रेखाओं की दुनिया से अलग प्रशासनिक उलझनों, फाइलों और सरकारी बाबुओं से यह मगजमारी आखिर क्यों? अर्पणा कहती हैं, 'पेड़ बचेंगे तो ही कैनवास पर दिखेगी हरियाली और तभी मन को भी मिलेगा सुकून।' कला की यात्रा में आज वह इस मुकाम पर खड़ी हैं, जहां कई देशों की नामी-गिरामी गैलरियां उनकी पैंटिंग्स का इंतजार कर रही हैं, लेकिन कला की दुनिया में भी कई लोगों को यह देखकर ताज्जुब होता है कि अर्पणा कौर के लिए दिल्ली में हो रहे महत्वाकांक्षी कलाकारों के कुंभ आर्ट समिट का जितना महत्व है, उससे कहीं ज्यादा उन्हें हरियाली की फिक्र है- 'एक कलकार पहले इंसान है, फिर कलाकार। कला रचने की प्रेरणा आखिर पेड़-पौधे, फूल-पत्ती भी तो देते हैं।'
एक कलाकार की पेड़ बचाने की यह जिद कब पूरी होती है, यह तो किसी को नहीं पता, लेकिन अर्पणा कौर की इस जोखिम भरी लड़ाई बहुतों को अचंभे की तरह लगती है। पेज थ्री की पार्टियों में या फिर गैलरियों की ओपनिंग प्रदर्शनियों में अमरत्व की खोज करने वाले कलाकारों को देख-देखकर ठहर चुकी आंखों को अर्पणा कौर की यह जिद एक सनक भी लग सकती है।
सनक ही है, जिसने महत्वाकांक्षियों की भीड़ में अर्पणा कौर को एक नई पहचान दिलाई है। जब उनके समय के सारे कलाकार पश्चिम की दुनिया में अपनी कला के लिए जगह बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, वह पंजाब के चिनाब नदी से सटे एक गांव में सोहनी और महीवाल की महान प्रेमकथा को बार-बार सुन रही थी। सदियों पुरानी मोहब्बत की इस कहानी ने जब उनकी कूची से आकार पाया तो गैलरी में मौजूद लोगों को सहसा ही लगा कि एक बार फिर सोहनी दे रही है आवाज। आज भी उनकी कला में माटी की गंध मिलती है तो इसकी बड़ी वजह यही है कि जब भी उन्हें कलात्मक शक्ति की जरूरत होती है, उनकी निगाहें गुरुनानक, बुल्ले शाह, बाबा फरीद और कबीर को ढूंढने लगती हैं। और कहना गलत नहीं होगा कि समकालीन भारतीय कला में सूफीवाद को जो जगह मिली है, उसके पीछे अर्पणा कौर की सनक भी है।
लेकिन क्या हमेशा बीते हुए कल से अपनी कूची के लिए ताकत बटोरने में यह खतरा नहीं है कि कलाकार अपने वक्त से कट जाए। अर्पणा कौर कहती हैं, आपकी कला खुद इस खतरे से निबटती है। विषय कुछ भी हो, कोई भी कलाकार जब रचता है तो वह अपने समय में रचता है। अपने वातावरण में रचता है और अपने वक्त के लिए रचता है। अगर मैंने सोहनी महिवाल बनाया तो ये मुमकिन ही नहीं कि सोहनी के समय के लोग उसे देखें। आनेवाले कल के लोग उसे कितना देख पाएंगे, यह भी मुझे नहीं पता, लेकिन उसे मेरे जमाने के लोगों ने देखा और यहीं आकर कला बीते वक्त से निकलकर अपने जमाने में खड़ी हो जाती है। बीते जमाने के सच को अपनी सोच में ढालना आसान काम नहीं, लेकिन अर्पणा कौर ने जिस अंदाज में सदियों पुरानी कई कला परंपरा को अपनी कला में जगह दी है, उससे उनका हर कैनवास एक ताजगी का अहसास देता है। लोक और आदिवासी कला को देखकर हमेशा मुझे कुछ नया करने का जुनून मिला है। वार्ली चित्रकला हो या गोंड कला हो,चंबा कला हो या कोई भी लोक कला, आप गौर से देखेंगे तो आपको लगेगा कि हर कला आपसे कुछ कह रही है। अर्पणा कौर को यह मलाल है कि पश्चिम के मोह में अक्सर अपने पारंपरिक कलाओं की आवाज को अनसुना कर देते हैं।
कला की आवाज को सुनने के लिए एक बेहद संवेदनशील दिल चाहिए, लेकिन भागती दुनिया के शोर में जब लोगों को अपनों की आवाज खटकती हो तो ऐसे में कितनों को यह फुरसत होगी कि कला की मासूम पुकार पर जवाब दे सके। शायद यही वजह है कि अपनी मां और प्रख्यात साहित्यकार अजीत कौर के सहयोग से अर्पणा कौर ने लोक और आदिवासी कला के साथ-साथ इंडियन मिनियेचर पेंटिंग्स का एक बहुमूल्य संग्रहालय बनाया है। देश के कोने-कोने में पनपी कला परंपराओं का एक ऐसा संगम, जिसपर चाहे ते दिल्ली फक्र कर सकती है। और आप चाहें तो इसे भी देश की एक प्रख्यात चित्रकार की सनक कह सकते हैं।
मगर अर्पणा कौर की यह जिद, यह सनक और यह कलात्मक जिजीविषा कई सवाल भी पूछती है। बिना उत्तर की प्रतीक्षा के। सवाल हमसे है। आपसे है। तमाम उन लोगों से है, जो यह मानते हैं कि हमारे आसपास की दुनिया को एक कला के कैनवास की तरह खूबसूरत होना चाहिए। उन सवालों में सबसे जरूरी सवाल यह है कि आखिर जिस वक्त में हम जी रहे हैं, उसकी सुंदरता की हिफाजत का जिम्मा क्या सिर्फ एक अकेली महिला चित्रकार का है। अर्पणा कौर तो अपनी कला में बार-बार कैंची का बिंब लाकर सालों से यह कहती आई हैं कि हरियाली, फूल, पत्ते, बच्चों की मासूमियत और बूढ़ों का अनुभव संसार सब जरूरी है। जिस दिन ये नहीं रहेंगे, उस दिन हम नहीं रहेंगे, लेकिन कौन करे पहल और सवाल सिर्फ खेलगांव इलाके में पेड़ों के कटने का नहीं है। यह तस्वीर गांवों से लेकर हर शहर और हर महानगर की है। अगर हम आसपास की दुनिया को यूं ही नजरअंदाज करते रहे तो फिर क्या आने वाली पीढ़ी को बता पाएंगे कि किसके कूकने से लौटता है बसंत और किसके बोलने से आते है पाहुन?
-देव प्रकाश, 24 अगस्त 2009, दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण,दिल्ली