-शेफाली वासुदेव. साथ में लबोनिता घोष,निर्मला रवींद्रन और सुप्रिया द्रविड़
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स
सौ साल बाद स्थिति बेहद सुखद रहने वाली है। मुझे पूरा यकीन है कि विदेश की प्रसिद्ध कला दीर्घाओं में भारतीय पेंटिंग की धूम रहेगी। जहां तक लोगों की कला में दिलचस्पी का सवाल है, तो निस्संदेह यह और बढ़ेगी। आज से दस साल पहले तक कला को केवल बौद्धिक जगत के लोगों से ही संबद्ध करके देखा जाता था। अब कला जन-जन तक पहुंच रही है। कला विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की सेख्या में जिस तेजी से इजाफा हो रहा है, उससे एक उम्मीद जरुर बंधती है। गौर करने वाली बात यह है कि पहले कला को अपना कैरियर बनाने की बात एक कलाकार का बेटा ही सोचता था, लेकिन अब ऐसे बच्चे भी कला में भविष्य बना रहे हैं, जिनका पीढ़ियों से कला के क्षेत्र से कोई लेना-देना नहीं है। कला के क्षेत्र में संभावनाएं भी बढ़ी हैं, जिसके कारण युवाओं का रुझान इस क्षेत्र की तरफ बढ़ा है। कुल मिलाकर आज की स्थितियां भविष्य की बेहतर संभावनाओं के प्रति आशा जगाती हैं।
इन सब चीजों से बढ़कर खुद चित्रकार होते हुए भी उन्हें दूसरों की कृतियां अच्छी लगती हैं। यह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर के चरित्र का वह हिस्सा है, जो बताता है कि आज भी उनके मन में दूसरों की कला और दूसरों के संघर्ष के प्रति सम्मान है। वैसे संघर्ष शब्द अर्पणा कौर के लिए नया नहीं है। बचपन में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित हो रही थी। उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरुष-प्रधान मानसिकता वाले समाज में एक अकेली औरत को खुद के लिए लड़ते देखा था। वह औरत मेरी मां थी और मैं आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं, कहते हुए अर्पणा कौर मानो अपने बचपन में पहुंच गई हों। मेरा बचपन कुछ अलग था। अपने असफल हो चुके दांपत्य जीवन से संघर्ष करती मेरी मां ने मुझे असीमित प्यार दिया और उस माहौल ने मेरे मन में कुछ रचने की, सोचने-समझने की अकूत ताकत दी। यह भी नहीं याद कि मैं कब रंगों से खेलने लगी और कब ब्रश के खेल मेरी अभिव्यक्ति में शरीक होने लगे। मेरी बेहतर लिखाई-पढ़ाई के लिए मां को काफी मेहनत करनी होती थी। वह स्कूल में पढ़ाती थीं, लेकिन पंजाबी साहित्य की दुनिया में एक लेखिका के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो रही थीं। शायद बहुत कम लोगों को मालूम है कि पंजाबी साहित्य की सुपरिचित लेखिका अजीत कौर चित्रकार अर्पणा कौर की मां हैं।
दिल्ली में गैलरी एस्पेस की मालकिन रेणु मोदी का अनुमान है कि यह समस्या बढ़ेगी, पर प्रमोटर संजीव भार्गव के अनुसार यह कला जगत में हुए खासे विकास का नतीजा है। उनके मुताबिक, "समस्या यह है कि तैयब मेहता और हुसैन की कलाकृतियों का बेहद ऊंची दरों पर बिकना भले ही भारतीय कला के बढ़ते मूल्यों का सबूत है, पर इस क्षेत्र में व्यापार अभी संगठित नहीं है।" क्यूरेटर इना पुरी कहती हैं कि कलाकारों को मिलकर काम करने की जरूरत है। "कोई जेमिनी रॉय जैसे लोगों का भोलापन तो समझ सकता है, पर आज के कलाकारों को यह पता होना चाहिए कि बाजार में उनकी कितनी कीमत है और उन्हें ज्यादा जिम्मेदार होना चाहिए।" उन्होंने दिल्ली के होटल आइटीसी मौर्य में प्रदर्शित सभी कलाकृतियों का बीमा कराया है। वे पूछती हैं, "पिकासो की प्रदर्शनी लगती है तो राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय की सुरक्षा कौन करेगा? हमें समस्या बढ़ने से पूर्व ही खत्म करनी होगी।" दूसरे के मुताबिक, यह सब इतना आसान नहीं। बीमे के लिए प्रमाणीकरण और मूल्यांकन जरूरी है। बकौल मेनन, "बीमा प्रक्रिया इतनी अटपटी है कि इसमें कला कर्म से ज्यादा कैनवस की कीमत शामिल की जाती है।" मोदी बताती हैं कि कैसे नेशनल इंश्योरेंस कंपनी ने उनको कुछ मूर्तिशिल्प का नुकसान होने पर 100 रू का मुआवजा देने की पेशकश की। उनका मानना है कि मौजूदा बीमा महज धोखा है, सतही तौर पर आपकी कलाकृति का बीमा तो होता है। पर बात आगे बढ़ने पर बीमा एजेंसी पूछेगी, "इसका मूल्यांकन किसने किया?" कला संग्राहक नितिन मयाना इसके लिए बीमा कंपनियों में जागरूकता की कमी को जिम्मेदार ठहराते हैं, "दुनिया भर में बीमा कंपनियां कला का इस्तेमाल संभ्रांत व्यक्तियों तक पहुंचने के लिए करती हैं। भारतीय कंपनियों ने अभी इस तरफ दिमाग नहीं लगाया है, हालांकि दस साल के प्रकाशित आंकड़े उपलब्ध हैं और मूल्यांकन आसानी से किया जा सकता है।" पश्चिम में एक्सा जैसे बीमा संगठनों ने कला के बीमे के लिए अलग से शाखा बना रखी है जिसमें मूल्यांकन आसानी से करने वाले भी हैं तो प्रमाणीकरण करने वाले भी।
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