Thursday, February 11, 2010

दुनिया को सुंदर बनाने का सपना

मानवीय मूल्यों और संबंधों की याद दिलाते उनके चित्र इस दुनिया को सुंदर बनाने की वकालत करते हैं। यही कारण है कि अर्पणा कौर के चित्र जिजीविषा के छंद लगते हैं।
उनके कैनवास पर पहाड़ हैं, फूलों की घाटियां हैं, झूमती प्रकृति है और कोई नाचता पुरुष है तो वह महज इसलिए नहीं कि ये सारी चीजें आंखों को लुभाती हैं। उन्होंने प्रकृति को एक मनुष्य की आंखों से देखा है और उसमें समाज के चेहरे पहचानने की कोशिश की है। इसीलिए अर्पणा की कला अक्सर कुछ कहती हुई जान पड़ती है और रंगों के प्रयोग का अनूठा व्याकरण मिलता है उनकी कला में। वे बताती हैं : "पहले मेरे चित्र मेरी निजी डायरी के पन्नों की तरह हुआ करते थे, पर एक कैनवास से दूसरे कैनवास तक की यात्रा के बाद मैं अपने आपको आज अधिक परिपक्व और समझदार पाती हूं।" इन सब चीजों से बढ़कर खुद चित्रकार होते हुए भी उन्हें दूसरों की कृतियां अच्छी लगती हैं। यह वरिष्ठ चित्रकार अर्पणा कौर के चरित्र का वह हिस्सा है, जो बताता है कि आज भी उनके मन में दूसरों की कला और दूसरों के संघर्ष के प्रति सम्मान है। वैसे संघर्ष शब्द अर्पणा कौर के लिए नया नहीं है। बचपन में जब उनके दिलो-दिमाग में रंगों और रेखाओं की भाषा विकसित हो रही थी। उन्होंने एक मां को एक बेटी के लिए और पुरुष-प्रधान मानसिकता वाले समाज में एक अकेली औरत को खुद के लिए लड़ते देखा था। वह औरत मेरी मां थी और मैं आज जो कुछ भी हूं, अपनी मां की वजह से हूं, कहते हुए अर्पणा कौर मानो अपने बचपन में पहुंच गई हों। मेरा बचपन कुछ अलग था। अपने असफल हो चुके दांपत्य जीवन से संघर्ष करती मेरी मां ने मुझे असीमित प्यार दिया और उस माहौल ने मेरे मन में कुछ रचने की, सोचने-समझने की अकूत ताकत दी। यह भी नहीं याद कि मैं कब रंगों से खेलने लगी और कब ब्रश के खेल मेरी अभिव्यक्ति में शरीक होने लगे। मेरी बेहतर लिखाई-पढ़ाई के लिए मां को काफी मेहनत करनी होती थी। वह स्कूल में पढ़ाती थीं, लेकिन पंजाबी साहित्य की दुनिया में एक लेखिका के रूप में तेजी से लोकप्रिय हो रही थीं। शायद बहुत कम लोगों को मालूम है कि पंजाबी साहित्य की सुपरिचित लेखिका अजीत कौर चित्रकार अर्पणा कौर की मां हैं।
आज जब कला की दुनिया में कुछ अजूबा करके और ऊल-जलूल हरकतों से प्रचार पाने की प्रवृति चरम पर है। अर्पणा कौर की आस्था को स्मृति और स्मृति को संवेदना में बदलने की पूरी प्रक्रिया एक खास अंदाज में अर्पणा कौर के यहां फिल्टर होती है।
1980-81 के आसपास स्टारलेट रूम, बाजार आदि चित्र-श्रृंखलाओं में उन्होंने जहां एक आम भारतीय नारी के कई पक्षों की कलात्मक परिभाषा तय की, वहीं वर्ष 1983 की उनकी चित्र श्रृंखला में कलाप्रेमियों ने स्त्री-पुरुष संबंधों की एक नई व्याख्या को महसूस किया। 1984 के सिख विरोधी दंगे ने अर्पणा कौर को माने झकझोर कर रख दिया। उस पीड़ा पर बने उनके चित्रों को जिन्होंने देखा होगा, वे जानते हैं कि उनकी कला में आम आदमी के दुख-दर्द किस तरह जगह पाते हैं। वे खुद कहती भी हैं : "मुझे लगता है कि चित्रों में आम आदमी आए और आम आदमी को समर्पित चित्र आम आदमी तक भी पहुंचे।"
अर्पणा कौर बाजार के सच को पहचानती हैं, पर कभी भी उन्होंने उन खरीददारों के लिए अपने कैनवास पर एक स्त्री को जगह नहीं दी, जिनके लिए औरत आज भी एक उपभोक्ता सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। चर्चा में बने रहना शायद उन्हें पसंद नहीं। पिछले दिनों जब उनकी नकल की हुई कलाकृतियां दिल्ली में बरामद हुईं तो भीतर से अहत अर्पणा ने इतना भर कहा : "कला की दुनिया में नैतिकता न बची रहे तो फिर कला की परिभाषा बदलनी होगी।"
-एकलव्य, लोकायत, दिसंबर-2003
प्रस्तुति-प्रीतिमा वत्स

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